बेबस जनता जालिम हुक्मरान

 


बेबस जनता जालिम हुक्मरान


जाके न फटे पैर बिवाई वो क्या जाने पीर पराई


 


कोरोना के कहर से देश क्या सारी दुनिया में परेशान है। वहीं आम गरीब इंसान भुखमरी के खौफ से परेशान है। हुक्मरान सारे संसाधनों से लेस बंद कमरे में वीडिओ कांफ्रेंसिंग के जरिये जनता पर तालिबानी फैसला थोप देते है। जिसे जनता को मानना जरुरी हो जाता है। इस फैसले से चाहें कितनी भी परेशानी उठानी पड़े। दवा और भोजन के अभाव में चाहे जान ही क्यों न गवानी पड़े।


कुछ इसी तरह के फरमान देश के यशस्वी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक बार ही नहीं तीन-तीन बार जारी कर दिए। न कोई योजना और न कोई दूरदर्शिता। सिर्फ अपना फरमान जारी करना उसके बाद उसको जबरन लागू करवाना। सीधे उस अंदाज में कि जबर मारे और रोने भी न दे। जो रोये उसको कोई भी तकलीफ हो, उसकी सुनने वाला कोई नहीं। रोने वाले सीधे देशद्रोही।


जनता के द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधि, जनता की चुनी सरकारे और प्रधान सेवक सब के सब जनता का दर्द जानने की जहमत तक नहीं उठाते है। जनता तालिबानी फरमान के बाद चारों ओर संकट के बादल देख अपने अपने आशियानों की तरफ कूंच करती है, तब भी उनका दर्द और जरूरतों पर ध्यान देने की जगह उन पर लाठियां भांजी जाती है। अपने ही देश वासियों की दुर्दशा का हाल देख स्थानीय जनता का दिल जरूर पसीजा, और अपने स्तर पर अपनों की मदद के लिए उतरे। किसी ने पानी का इन्तिज़ाम किया, तो किसी ने खाने का। कोई इनके लिए केले लेकर आया तो कोई संतरे। लेकिन तादात और जरूरत को देखते हुए यह कोशिशे ना काफी साबित हुई। जरूरत थी उनको उनके ठिकाने तक पहुचने की। लेकिन जनता यह नहीं कर सकती थी। क्योंकि सरकारी फरमान या तालिबानी फरमान का उलंघन हो जाता। जिसका खामियाजा छह कर भी ये समाजसेवी नहीं भुगतना चाहते थे। ये समाजसेवी अपनी जान तो जोखिम में दाल सकते थे लेकिन दूसरों में कोरोना महामारी फ़ैलाने का लांछन नहीं झेलना चाहते होंगे।


खैर जैसे तैसे यह दौर गुजरा। कुछ लोग 100 किमी। तो कुछ हजार किमी। पैदल ही अपने बीबी, बच्चों और बूढ़े मां बाप को लिए हुए निरंतर चलते हुए घरों को निकल पड़े। वहीं कुछ को स्थानीय प्रशासन ने डंडे के दम पर वहीं घेर दिया। भोली और न समझ जनता के आगे इस तुगलकी फरमान को मानने के अलावा कोई विकल्प ही न था।  इस जनता ने सब्र किया कि 21 दिन की बात है कोई न कोई रास्ता हम भक्तों के लिए हमारी सरकारे जरूर निकलेगी। लेकिन 21 दिनों के अंतराल के बाद भी कोई ठोस योजना न बनाकर फिर 19 दिन का वही तुगलकी फरमान।


भोली और भक्त जनता के सब्र का बाँध टूट गया और वह भूखी प्यासी फिर सड़कों पर उतरी। इस बार फिर मठाधीशों ने उनके दर्द को जानने और हल निकालने के बजाय उन पर फिर लाठी भांजी गई। उनके दर्द की पैरवी करने वाले को खलनायक साबित किया गया। सलाखों के पीछे दाल दिया गया।


आपके भक्तों के मन में एक सवाल उठ सकता है कि देश विदेश का दौरा करने वाले यशस्वी प्रधानमंत्री ने जनता के हित में जो बेहतर समझा वह किया। उनके प्रत्येक अपील को कानून समझ के पालन सभी को करना है। जो नहीं करेगा उसे सरकार की लाठी और भक्तों की जबरदस्ती पालन करवा ही देगी।


हम मानते है संकट बहुत बड़ा है। महामारी सुरसा सा मुंह बाए खडी है। जब महामारी इतनी बड़ी थी तो इसका संज्ञान पहले क्यों नहीं लिया गया। जब जनवरी माह के अंत में पहले कोरोना मरीज का पता चल जाता है तब दूरंदेशी प्रधानमंत्री सचेत क्यों नहीं हुए ? तब हम यार की वाहवाही करने उसके स्वागत के लिए लाखों की भीड़ जुटाने और जनता की दौलत को करोड़ो बर्बाद करने में जुटे रहे। क्यों हम गुजरात के अहमदाबाद, उत्तर परदेस के आगरा और देश की राजधानी दिल्ली में कोरोना संक्रमित लोगों के स्वागत में जुटे रहे। तब भीड़ से परहेज क्यों नहीं किया गया? क्यों प्रयाग में रैली की गई ? क्यों चित्रकूट में भव्य आयोजन किया गया ? अपनी सारी जरूरते और ख्वाहिशें पूरी करने के बाद जनता कर्फ्यू का एलान कर दिया जाता है। जनता ने प्रधानमंत्री की अपील को स्वीकारा भी और पालन भी किया। अभी इस स्थिति को जनता ही पाई थी कि उस पर 21 दिन का तुगलकी फरमा थोप दिया गया। इन 21 दिनों की महामारी और उसके दौरान आये संकटों से उबरने की सोच रही जनता पर 19 दिन का लाक डाउन फिर से। सिर्फ इतना ही नहीं इस दौरान जब सारे मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, गिरिजाघर बंद पड़े हो तब सबसे अधिक आबादी वाले प्रदेश के मुखिया मूर्ति स्थापना के आयोजन में व्यस्त रहते है। देश के सबसे पड़े प्रदेश में सरकार गिराने और बनाने का खेल जारी रहता है। पूर्व पी एम और पूर्व सी एम अपने बच्चे की शादी में लाक डाउन की धज्जियाँ उड़ाते है। विधायक महोदय शाही अंदाज में जन्मदिन मनाने के लिए लाक डाउन को ताक में रख देते है। इसका मतलब लाक डाउन सिर्फ गरीब, मजदूर और मजबूर के लिए ही है।


इसके बावजूद सरकार का फरमान सिर आँखों पर। लेकिन एक बात जानने का अधिकार जनता के सेवकों से जरूर जनता को है कि देश के सारे संसाधन आखिर हैं किसके लिए ? क्या वह देश की जनता के लिए नहीं है ? अगर देश की जनता के लिए है तो शासन और प्रशासन उनको यह बात समझाने में कामयाब क्यों नहीं हुआ ? क्यों समय रहते मजदूर और मजबूर लोगों को उचित स्थान स्कूल, स्टेडियम, बैंकिट हाल, कम्युनिटी सेंटर में शिफ्ट किया गया ? क्यों उनके लिए उचित और पर्याप्त भोजन की व्यवस्था की गई ? उनकी जांच समय से करके उनके उचित स्थानों के लिए रवाना क्यों नहीं किया गया ? जबकि देश की ट्रेने भी जनता की है और बसे भी। तो फिर सोशल दूरी का ख्याल रखते हुए प्रत्येक परिवहन में आधी या आधे से भी कम सवारी बिठाकर रवाना करना चाहिए था। लेकिन इन सरकारों को राशन नहीं सिर्फ भाषण देना था। जनता को मुर्ख समझने वाली सरकारे आपस में ही नूरा कुश्ती लड़ने पर आमादा दिखी। मेरा देश की जनता से अनुरोध है कि वह अपने हुक्मरानों का अनुसरण करे। साथ ही अपने हुक्मरानों से भी अनुरोध है कि वह जनता से कुछ अपेक्षा करने से पहले खुद भी अनुसरण करे। अगर हुक्मरान ऐसा नहीं करेंगे तो फिर कैसे उस दर्द को महसूस कर सकेंगे। क्योंकि यह कहावत यो ही नहीं है कि “जाके न फटे पैर बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई”।


लेखक वेब वार्ता (समाचार एजेंसी) के संपादक है।