भारत तेरे टुकड़े होंगे... के बाद भारत को टुकड़े टुकड़े बिखरे देखा


भारत तेरे टुकड़े होगे...  यह नारा देश की जानी मानी जवाहरलाल यूनिवर्सिटी पर तथाकथित राष्ट्र भक्तों द्वारा थोपा गया था।  इस नारे को सुनकर प्रत्येक भारतीय का खून उबलना भी लाज़मी था।  खून खौला भी और बिना हकीकत जाने भावनाए भी भड़की।  इसी आधार पर लोग सत्ता पर सवार भी हो गए।  बाद में हकीकत पता चली की जिस वीडियो को इस नारे का आधार बनाया उसके साथ छेड़छाड़ की गई थी।  जितने जोर शोर से झूठ फैलाया गया उतने जोर शोर से उसकी हकीकत नहीं बताई गई।  इसलिए जनता झूठ को ही सच मानकर एक शिक्षा के मंदिर और उसके लोगों से नफरत करती रही।  लेकिन कोरोना महामारी में तथाकथित नफ़रत फैलाने वाले और अपनी चुनी हुई सरकारों की पोल खोल दी।   



इस वक़्त पूरी दुनिया एक महामारी से जूझ रही है।  भारत भी इससे अछूता नहीं है।  लेकिन अपने और परायों की पहचान भी मुसीबत के वक़्त ही होती है।  इस मुसीबत को भारतीयों ने बहुत करीब से देखा।  यहाँ अपने हाथों से चुनी सरकारों ने मदद करने से न सिर्फ हाथ उठा लिए बल्कि दर दर भटकने को मजबूर भी कर दिया।  जिन सरकारों को अपना कहते जिनकी जुबान नहीं थकती थी, वही सरकारों ने अपने ही देश को सीमाओं में बाँट दिया।  अपने ही देश के नागरिकों का अपने ही राज्य में प्रवेश वर्जित कर दिया गया।  इन सरकारों ने अपनी ही जनता के साथ घुसपैठियों से ज्यादा बदत्तर सलूक किया। 



सरकार का फरमान जिसे कानून की शक्ल देकर सरकार मनवाना तो चाहती है, लेकिन उसमे आने वाली दिक्कतों का सामना जनता कैसे करे इसका हल नहीं निकालना चाहती है।  जनता ने कोई अपराध नहीं किया है जो वह सजा भुगते।  यह प्राकर्तिक आपदा है, इस आपदा से निकालने के बेहतर प्रयास किये जाने चाहिए थे।  लेकिन जनता पर तुगलकी फरमान थोप दिया गया।  जनता के जब कुछ समझ नहीं आया तो वह अपनी कर्मस्थली छोड़ जन्मस्थली की ओर निकल पड़ी।  मासूम जनता को क्या पता कि उसको अपने ही देश में राज्यों और जनपदों की सीमाओं में प्रवेश करने पर लाठी खानी पड़ेगी।  रिश्वत देनी पड़ेगी, केमिकल का छिडकाव करवाना पड़ेगा।  चाहे एक बीमारी से बचने के लिए निकले मजबूर अनेकों बीमारी की चपेट में आ


जाए। 


पूरे देश में एक स्थान से दुसरे स्थान के लिए पलायन शुरू हुआ।  हजारों मील का सफ़र भूख, अनिश्चितता और भय के वातावरण में तय करने लगे।  जिसमे पुरुष के साथ साथ महिलाएं, गर्भवती महिलाएं, बुजुर्ग, नौनिहाल बच्चे सफ़र करते नज़र आये।  कुछ तो अपनी मंजिल तक पहुँच भी गए, लेकिन कुछ इतने अभागे निकले की उन्होंने रास्ते में ही दम तोड़ दिया।  कोई किसी की मदद नहीं कर सका।  चाह कर भी मदद नहीं कर सकता था कोई।  क्योंकि जो लोग सफ़र में थे वे अपनी ही जरूरत का सामान लेकर नहीं चल सकते थे।  खाना तो दूर आप पानी ही पैदल पांच किलोमीटर लेकर चलने की कोशिश कीजिये।  इनका सफ़र तो हजारों किलोमीटर का था।  भोजन जो एक वक़्त से दुसरे वक़्त खराब हो सकता है उसे कितना लाद सकते थे।  इसके ऊपर से छोटे बच्चों को लेकर चलना, बुजुर्गों को लेकर चलना।  लेकिन एक द्रण निश्चय और सरकारों के अविश्वास ने उन्हें रुकने नहीं दिया।  जिन सरकारों को जनता ने चुना था उन्ही सरकारों की कारगुजारियां जब जनता ने देखी तब जनता को समझ में आ गया की हम सब ठगे गए है।  जनप्रतिनिधि तो नहीं जनता जरूर जनता की मदद करना चाहती थी।   लेकिन लाक डाउन में घर से निकलना भारी था।  कुछ डर से नहीं निकल सके, तो कुछ कानून के डर से।  जब मीडिया ने कुछ खबरे दिखलाना शुरू की जिनको देख कर चुने हुए जनप्रतिनिधि और चुनी हुई सरकारों के कानों में भले ही जू न रेंगी हो, पर जनता का कलेजा फटने लगा।  और जनता, जनता के लिए सडको पर उतर आई।  बिना किसी भेदभाव के जनता ने जनता को जितना संभव हो सका उतनी मदद की।  बुरे वक़्त में जरूरते भले पूरी न हो अगर कोई हमदर्दी की आस भी बंधा दे तो वह भी उजाले की किरण बन जाती है।  इस बीच जनता ने एक और बात महसूस की, जिस मुस्लिम समुदाय को मीडिया कोरोना का जनक बता कर खलनायक बता रही थी और तरह तरह से परेशान किया जा रहा था, वह मुस्लिम समुदाय सबसे आगे बढ़कर मजबूरों की सेवा में जुटी थी।  सिख समुदाय की भी भूमिका सराहनीय रही।


अब पछताए होत क्या जब चिडिया चुग गई खेत।  इस महामारी से बड़ी महामारी उसको सरकारों का व्यवहार लगा।  जनता को सिर्फ धोखा ही नहीं मिला बल्कि उसको सजा भी मिली।  मजबूर की रोजी रोटी गई, जमा पूँजी गई, दुःख बीमारी के लिए डाक्टर और इलाज का अभाव अलग से।  मरता क्या नहीं करता, बस चल दिया अपने गृह राज्य की ओर।  जब गृह राज्य की ओर चला तो तमाम तकलीफों के बावजूद उसे उम्मीदें थी अपनी चुनी सरकारों से।  सोचा था संकट के समय हमारे टैक्स से भरे खजाने सरकारें खोल देंगी।  जनता के पैसे से चलने वाली रेल और अन्य परिवहन का इन्तिजाम किया जाएगा।  गृह राज्य की सीमा में पहुँचते ही अपनी राज्य सरकार बाहे फैलाए स्वागत करती नज़र आएगी।  लेकिन यह क्या सरकारों के बयान आने लगे कि कोई भी उनकी सीमा में प्रवेश न करे।  रेले वहीं खड़े खड़े सडती रहीं, बसों का कहीं अता पता नहीं।  काफी खीचातानी के बाद बड़ी सरकार ने रेल चलाने की बात कही, जिस पर किराया भी वसूलने का आदेश दे दिया।  सब तरह से लुटे पिटे मजबूर लोगों के पास जब धेला नहीं तो किराया कहां से दे।  बडकी सरकार ने छुटकी सरकारों को कहा कि वह अपने प्रदेशवासियों का किराया भरपाई करे।  लेकिन यह क्या बड़े मियां तो बड़े मियां छोटे मियां सुभानअल्लाह।  इन्होने भी असमर्थता जता दी।  कुल मिलाकर जनता जाए भाड़ में, हमकों क्या हम तो मौज में है।  पता नहीं चुनाव के वक़्त मजबूरों का घर और दरवाजा पीटने वाले नेता, पार्षद, प्रधान, विधायक, सांसद और मंत्री कहां गायब हो गए।  


कुल मिलाकर देश के मतदाता की जितनी छीछालेदर और फजीहत हो सकती थी उतनी हुई।  शायद उसे समझ आ गया होगा कि वह अपने वतन में भी अपनी मर्जी से न तो रह सकता है न खा सकता है और न ही चल फिर सकता है।  लेकिन इन मजबूरों ने ठाना है कि अब आपस में नहीं लड़ेंगे।  न हिन्दू मुस्लिम के नाम पर और न अगड़े पिछड़े के नाम पर।  अब लड़ाई होगी शोषित और शोषण के बीच।  अगर अब भी इन मजबूरों की आँख नहीं खुली, अब भी धर्म और राष्ट्र का झूठा पर्दा नहीं हटा तो इन मजबूरों की ईश्वर भी मदद नहीं कर सकता।